गुरु दत्त की ‘ना’ बनी देव आनंद की ‘हाँ’: जब एक ठुकराया हुआ गाना इतिहास बन गया
गुरु दत्त ने ठुकराया एस. डी. बर्मन का गाना, जो बाद में देव आनंद पर फिल्माकर बना हिंदी सिनेमा का 'कालजयी' सुपरहिट।

हिंदी सिनेमा के दो स्तंभों, दिग्गज फिल्ममेकर गुरु दत्त और महान संगीतकार एस. डी. बर्मन के बीच की कहानी न सिर्फ़ दोस्ती और रचनात्मक सहयोग की थी, बल्कि तनाव और विडंबना की भी थी। एक ऐसा ही वाकया है जब गुरु दत्त के एक कठोर फैसले ने एक धुन को रिजेक्ट कर दिया, और वही धुन बाद में देव आनंद की फिल्म में अमर हो गई।
रिजेक्टेड कंपोजिशन: ‘ये दिल न होता बेचारा‘
साल 1967 में आई देव आनंद की सुपरहिट फिल्म ‘ज्वेल थीफ‘ का गाना ‘ये दिल न होता बेचारा‘ आज भी एक बेमिसाल और ‘कालजयी’ गीत माना जाता है। लेकिन बहुत कम लोग जानते हैं कि इस गाने की धुन सबसे पहले गुरु दत्त की फिल्म के लिए कंपोज की गई थी, जिसे गुरु दत्त ने यह कहते हुए खारिज कर दिया था कि यह “कमजोर“ है।
बीमारी में टूटा भरोसा और दोस्ती
यह घटना 60 के दशक की शुरुआत की है, जब एस. डी. बर्मन एक साथ धर्मेंद्र की फिल्म ‘बहारे फिर आएंगी‘ और गुरु दत्त की एक फिल्म के लिए संगीत दे रहे थे।
- दिल का दौरा: बर्मन साहब को अचानक दिल का दौरा पड़ा और उनकी तबीयत गंभीर हो गई।
- गुरु दत्त का निर्णय: इस मुश्किल घड़ी में, दोस्ती या सहानुभूति दिखाने के बजाय, गुरु दत्त ने व्यावसायिक दृष्टिकोण अपनाया। उन्होंने न केवल बर्मन साहब द्वारा मोहम्मद रफी की आवाज़ में रिकॉर्ड कराए गए गीत को कमज़ोर बताकर अपनी फिल्म से बाहर कर दिया, बल्कि बीमार संगीतकार को अपनी आगामी फिल्म के प्रोजेक्ट से भी हटा दिया।
देव आनंद ने दिया मौका और जादू हुआ
सेहत में सुधार होने के बाद, एस. डी. बर्मन ने अपने संगीत का काम फिर से शुरू किया। उन्होंने उस ‘कमज़ोर’ धुन पर दोबारा काम किया, जिसे गुरु दत्त ने ठुकराया था, और इसे देव आनंद की फिल्म ‘ज्वेल थीफ’ में इस्तेमाल करने का फैसला किया।
- गायक का स्विच: इस बार उन्होंने मोहम्मद रफी की जगह किशोर कुमार की चुलबुली आवाज़ को चुना।
- परिणाम: देव आनंद पर फिल्माया गया यह गाना एक मैजिकल हिट साबित हुआ। गाने की धुन, बोल (मजरूह सुल्तानपुरी के) और किशोर कुमार की ऊर्जा ने इसे एक ऐसा गाना बना दिया जो आज भी हर पीढ़ी को पसंद है। यह फिल्म की सफलता का एक मुख्य कारण बन गया।
एक त्रासदीपूर्ण विडंबना
इस कहानी की सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि जिस धुन को गुरु दत्त ने अपनी रचनात्मक कसौटी पर पास नहीं किया, उसकी ऐतिहासिक सफलता को वह अपनी आँखों से नहीं देख पाए। 1964 में गुरु दत्त का निधन हो गया, यानी यह गाना उनकी मौत के तीन साल बाद रिलीज हुआ और सुपरहिट हुआ।
यह किस्सा कला जगत में अक्सर होने वाले इस विरोधाभास को दर्शाता है कि कभी-कभी किसी कलाकार द्वारा ठुकराई गई चीज़ ही समय के साथ अमर हो जाती है। गुरु दत्त का कठोर फैसला एस. डी. बर्मन के लिए एक नए और ऐतिहासिक अध्याय का कारण बन गया।




